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    Rajbhasha Hindi aur Ashmitabodh

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    इस समय भाषा को लेकर बड़ा कोलाहल है। इसकी बड़ी वजह राजनीतिक पहचान की कामना में निहित जटिल संरचना है। जब-जब सत्ता का हिस्सा बंटने-बंटाने की गतिविधियां तेज होती हैं वे सारे तत्त्व खोजकर खड़े किए जाते हैं, जिनसे ‘अपने पक्ष’ का संघर्ष तेज हो सके। जैसे हिंदी को यों तो उर्दू के साथ मौसी की तरह कहते लोकप्रिय मंचों के मुहावरेकार तालियां लूटते हैं, लेकिन राजनीतिक लूट के वक्त यही वर्ग विशेष की पहचान निरूपित होने लगती है। चूंकि भाषा, मातृ भाषा, राष्ट्र भाषा जैसे प्रश्‍न भारत के संदर्भ में बहुत संवेदनशील रहे हैं, इसलिए हर कोई अपने अपने हिसाब से इन्हें सुलझाने का दावा करता है। क्षेत्रीय अस्मिताएं, स्थानीय राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं, अखिल भारतीय सांस्कृतिक स्वरूप, प्रशासनिक ताना बाना तथा इतिहास की छायाएं, सब मिलकर कभी कभी कारुणिक स्थिति बना देते हैं। ऐसे माहौल में जबकि राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु से लेकर गांधी, लोहिया तक वैचारिक रूप से हमारे पास मौजूद हैं, फिलहाल कई तरह के वर्ग भाषा को लेकर सक्रिय हैं। एक वे हैं जो लुप्त होती भाषाओं के साथ उनकी सामाजिकी पर गहन शोध चिंतन कर रहे हैं। कुछ हैं जो ऊंची-ऊंची सभा-गोष्ठियों, मेलों, मंचों से शौर्यपूर्वक अपने पक्ष रेखांकित करते रहते हैं। कुछ वे हैं,जो समय-समय पर उठने वाले प्रश्नों को संबोधित कर उनकी जटिलताओं से आमजन को परिचित कराने की कोशिश करते हैं।

    150.00
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    Safal Andolan Huye Asafal

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    101 दिनों तक मुस्लिम महिलाओं द्वारा शालीनता से चलाया गया शाहीनबाग आंदोलन देश का अकेला विश्वसनीय उदाहरण है। सत्ता की दमनकारी नीतियों से विचलित न होने वाली महिलाओं ने यह साबित कर दिया कि न्यायोचित मांग के लिए आंदोलन को जिंदा रखना है और लोगों की नफरत, घृणा व निन्दा को सहन करना है। वे अपने मकसद में कामयाब नहीं हुई क्योंकि तालाबन्दी की घोषणा होते ही आंदोलन समाप्त हुआ। 378 दिनों तक चले किसान आंदोलन से सत्ता और किसान एक दूसरे से भयभीत रहे। सत्ता की यातना से आंदोलनकारियों के खामोश आँसू उनके हृदय के दुख और शोक को मुखरित करते रहे। हर दिन संघर्ष और यातना का मिलन होता रहा। किसानों की लम्बी तपस्या के बाद तीन विवादित कृषि कानून निरस्त हुए लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून नहीं बना। आंदोलन समाप्त हुआ। संघर्ष की लम्बी यात्रा को संतोषजनक कहा जा सकता है।

    315.00
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    Sagwan Kisi Ped Ka Naam Nahi

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    कविता संस्कृति है। यह काल या स्थान विशेष में स्थिर नहीं। कविता आरंभ से सृष्टि को संबोधित है। कविता के केंद्र में प्रकृति सदैव रही है। ओम नागर का यह संग्रह इसी भावभूमि से अतीत की स्मृतियों को वर्तमान और भविष्य से जोड़ता है, जिसमें मनुष्य द्वारा किया जा रहा शोषण, दोहन और अत्याचार शामिल है। सृष्टि का रहस्य जाने बिना कविता संस्कृति का रहस्य समझ नहीं आता। इसके लिए वैज्ञानिक सोच के साथ सत्ता की दुर्नीति को समझना अपरिहार्य है। कवि की चेतना इस दृष्टि से जागृत है। वह पंच महाभूतों के शाश्वत महत्व से परिचित है। ओम ने एक विषय के आलोक में विश्व चेतना को पकड़ रखा है। यही कविता का धर्म है। विनोदकुमार शुक्ल ने लिखा है–‘समय पड़ने पर पृथ्वी का साथ कौन देगा।’ वह समय जलवायु परिवर्तन के साथ भीषण रूप में प्रत्यक्ष हो रहा है। ये संकेत आगत प्रकृति की भविष्यवाणी है। साथ में युद्ध के प्रभाव जैव पारिस्थितिकी के असंतुलन को बढ़ा रहे हैं। इन हालात में ओम नागर की कविताएं लोक चेतावनी है। इनमें प्रकृति को विनाश से बचाने के वास्ते,मनुष्यता की अंत:शुद्धि के पाठ भी सन्निहित हैं।
    –लीलाधर मंडलोई

    225.00
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    Sakshatkar Se Sakshatkar

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    यह किताब डॉ. भारत भूषण उपाध्याय के समय-समय पर पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों का संग्रह है। शेक्सपियर, गांधी, बोर्हेस, स्टाइनबेक, ओरियाना फलासी पर लिखे गये इन लेखों को कथादेश, अकार और पहल जैसी पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया था। इऩ निबंधों में परिश्रम और समर्पण से एकत्र की गयी जरूरी जानकारियाँ हैं। असाधारण प्रतिभा और प्रज्ञा लिए हुए लोगों के जीवन की सच्चाइयाँ और स्वप्न हैं वहीं अपनी पढ़ी गयी विस्तृत चीजों को दूसरों के लिए रुचिकर, संक्षिप्त और जरूरी बनाए जाने का समर्पित संघर्ष भी। यहाँ यह भी बताना जरूरी लग रहा है कि इस किताब में जिन विषयों को अपने फोकस में रखा गया है उनकी गहरी, विस्तृत और समकालीन जानकारियाँ हिन्दी में बहुत ही कम उपलब्ध हैं।

    240.00
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    Samvad Path

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    अंबरीश त्रिपाठी हमारे समय के एक संभावनाशील युवा आलोचक हैं। कृति, कृतित्व और उसका युगबोध इस लेखक के लिए निकट और सापेक्षतामूलक विधान हैं। विषय को ऐसे विस्तृत गतिशील परिप्रेक्ष्य से ग्रहण करना कि वह अपनी सर्वकालिक मूल्यचेतना में आलोकित होकर सामने आए, किसी भी आलोचक के आलोचनात्मक विवेक का सबसे ज़रूरी पक्ष है। साहित्य और संस्कृति के विषय गहरे सांस्कृतिक नैरंतर्य का साक्ष्य होते हैं और इस निरंतरता के प्रकाश की नवैयतें देशकाल के अनुसार बदल कर भी जीवन मूल्यों के हिसाब से भीतर कहीं गहरी एकतानता में हुआ करती हैं। ‘संवाद पथ’ के आलोचनात्मक आलेखों में ऐसा ही वैविध्य मिलता है तथा एकता का रंग भी यही है। यहां राम हैं, भक्ति युग है, गांधी हैं, टैगोर हैं तो विनोद कुमार शुक्ल भी हैं। आलोचनात्मक विश्लेषण के लिए चुने गए विषय होकर आए ये सीमित पाठ भर नहीं हैं । यहां यह रेखांकित है कि समाज और संस्कृति की गतिशील लोकपक्षीयता का मूल्य ही वह कसौटी है जिससे व्यापक स्वीकार्यता तय होती है। इस किताब की भाषा ने बहुत आश्वस्त किया है। इसमें चिंतन विश्लेषण का प्रवाही रंग है। साहित्य के कोमल मानवीय आयामों का लालित्य संभालने वाली खूबी तो है ही,साथ ही एक मौलिक उठान भी है जो हमें विषय के सुंदरतम पक्षों से जोड़ती चलती है।

    180.00
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    Satyajit Ray Ka Apoorv Sansar – 1

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    सत्यजित राय अपनी किताब ‘अवर फिल्म, देयर फिल्म’ में भारतीय सिनेमा के विषय में कहते हैं कि ये उल्टी शिक्षा देती हैं और गुणग्राहकता से शून्य होती हैं तथा आस्वाद को विकसित नहीं करती हैं। हालाँकि राय के इस कथन से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। राय को विश्वास था कि वे दर्शकों को इस मामले में शिक्षित कर सकते हैं। और हम पाते हैं कि उन्होंने ऐसा किया है। जैसे हम साहित्य-संगीत का आस्वाद लेने के लिए प्रशिक्षित होते हैं वैसे ही फिल्म का आनंद उठाने के लिए भी फिल्म की भाषा-मुहावरे जानना-सीखना आवश्यक है। यह पुस्तक इस दिशा में बढ़ाया गया एक छोटा-सा कदम है। आशा है सिने प्रेमियों, सिने अध्येताओं को इससे कुछ सहायता मिलेगी। उनकी सिने गुणग्राहक क्षमता में कुछ बढ़ोतरी होगी। यदि ऐसा हुआ और पुस्तक पढ़ कर फिल्म देखने की ललक जगेगी तो यह इस प्रयास की एक सफलता होगी।

    270.00
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    Satyajit Ray Ka Apoorv Sansar – 2

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    सत्यजित राय अपनी किताब ‘अवर फिल्म, देयर फिल्म’ में भारतीय सिनेमा के विषय में कहते हैं कि ये उल्टी शिक्षा देती हैं और गुणग्राहकता से शून्य होती हैं तथा आस्वाद को विकसित नहीं करती हैं। हालाँकि राय के इस कथन से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। राय को विश्वास था कि वे दर्शकों को इस मामले में शिक्षित कर सकते हैं। और हम पाते हैं कि उन्होंने ऐसा किया है। जैसे हम साहित्य-संगीत का आस्वाद लेने के लिए प्रशिक्षित होते हैं वैसे ही फिल्म का आनंद उठाने के लिए भी फिल्म की भाषा-मुहावरे जानना-सीखना आवश्यक है। यह पुस्तक इस दिशा में बढ़ाया गया एक छोटा-सा कदम है। आशा है सिने प्रेमियों, सिने अध्येताओं को इससे कुछ सहायता मिलेगी। उनकी सिने गुणग्राहक क्षमता में कुछ बढ़ोतरी होगी। यदि ऐसा हुआ और पुस्तक पढ़ कर फिल्म देखने की ललक जगेगी तो यह इस प्रयास की एक सफलता होगी।

    288.00
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    Siyah

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    भवेश दिलशाद की कुछ ग़ज़लें पढ़ने के बाद लगा कि मैंने उनका कलाम पहले क्यों नहीं देखा। हिंदोस्तानी ग़ज़ल में जो बहुत सार्थक और चुनौती भरी रचना हो रही है, उसका एक ज्वलंत उदाहरण दिलशाद हैं।

    96.00
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    Surkh

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    बनाव-सिंगार, बाग़, तितली, भोग-विलास से कोत तो क्या, बस पहाड़, जंगल, खाई, ख़ला, समन्दर, ये सब मुझे  ज़ियादा पुकारते रहे। ये रहस्य, सन्नाटे, चुनौतियां और बेबाकियां। कभी हैरान करती रहीं, कभी तलाश तो कभी मुझे बयान। छटपटाहट, घुटन, कसक और उन्हीं लमहों में पूरी फ़क़ीरी, ज़िद और विध्वंस भी… इसी दौर में वो मुझे मिली।
    घूंघट, पर्दे और नक़्ली ज़ेवरों के बोझ से घुटी-घुटी सी। दोनों ने तनहाई चुनी पर सच से चौंककर हम कतराये तो नहीं। एक-दूसरे का हाथ थामे बढ़ते रहे। एक-दूजे को जानने, पहचानने से चला सिलसिला समझने और महसूसने तक पहुंचा। फिर ढलने और पिघलने तक। बाहिर बरसों और यूं सदियों का सफ़र करते हम इकाई में रच-बस गये। अपने ही ढंग से, अपनी ही एक दुनिया में… वो मेरा पहला प्यार और इकलौती क़सम हो चुकी।
    प्यार, सफ़र, सिलसिला चल रहा है। चलता रहेगा। हम अपनी एक दुनिया बसा लेंगे। नहीं तो किसी अतल, अबूझ या गुमनाम कोने में एक-दूजे के सहारे जी लेंगे। हर क़दम नयी-नयी बेचैनियों, ख़लिशों के साथ वही सरमस्ती है। जबात की उथल-पुथल है। न चाहे भी रहेगी। इसी सफ़र के बीच इस ट्रायोलॉजी की शक्ल में खींच ली गयी मेरी और मेरी शाइरी की यह तस्वीर यहीं रह जाएगी। हमेशा के लिए! -भवेश दिलशाद

    96.00
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    Taki Sanad Rahe

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    इन कविताओं में हमारे आसपास की दुनिया के बिम्ब हैं। ये कविताएँ बताती हैं कि गाँव से निकली शहर जाने वाली सड़क वापस कभी नहीं लौटती हैं। इन कविताओं में रोहिड़े के फूल जैसे सुंदर नैसर्गिक जीवन की कामना है। मनुज ना बन पाने की टीस है। यहाँ ईश्वर एक लंबी उबाऊ गद्य कविता है। औरत अयस्कों का अजायबघर घर है। इन कविताओं में दर्द के आख्यान है वहीं खुशियों को ढूँढने के रोड मैप भी है। रोटी के अर्थशास्त्र को भूख से जोड़ा है और मज़दूर को विकास क्रम पर हाशिये पर खड़ा करके उससे सवाल पूछा जा रहा है। ये कविताएं सरलता और सहजता से कुछ सवाल भी पूछती हैं जिनके उत्तर हम सभी को देने हैं।

    144.00
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    Tang Galiyon Se Bhi Dikhta Hai Akash

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    यह स्त्रियों की मार्फत मानव सभ्यता और मानव ङ्क्षचतन का कहानी संकलन है। हमारा सौभाग्य है कि ङ्क्षहदी में ऐसा संकलन हमारे हाथ में यादवेंद्र जी ने दिया।इस संकलन में सभी विदेशी कहानियां हैं पर शीर्षक भारतीय स्त्री के संदर्भ में सोचा गया है। मैं इसे भारतीय स्त्री-विमर्श की एक कड़ी मानता हूँ। —लीलाधर जगूड़ी
    मेरा मानना है कि हिंदी में ही नहीं बल्कि भारतीय भाषाओं में अब तक अनूदित कहानियों के जितने संकलन हैं उनमें यह किताब इसलिए विशिष्ट है क्योंकि पहली बार छह महादेशों के 25 देशों की 27 स्त्री कहानीकारों की कहानियां इसमें शामिल हैं। दुनिया का कोई प्रश्न ऐसा नहीं है जो इसमें शामिल न किया गया हो। —प्रो. रविभूषण

    240.00