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    Chuninda Kahaniyan : Deepak Sharma

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    दीपक शर्मा की उपस्थिति हिंदी कथाजगत को समृद्ध करती है। जीवन का शायद ही कोई क्षेत्र हो जो दीपक शर्मा की कहानियों से छूटा हो। समाज के दलित, वंचित और उपेक्षित वर्ग का पक्ष, किसी शब्दाडम्बर के बिना शायद ही किसी ने इन जैसे प्रभावी रूप में प्रस्तुत किया हो। इनकी रचनाओं का परिवेश जितना व्यापक है, उतना ही प्रामाणिक भी। ऐसी प्रामाणिकता हिंदी में कहीं और नहीं दिखती है, और न ही वैसा विस्तार। दीपक शर्मा के पात्र, विशेषकर नारीपात्र आत्मविश्वासी और दृढ़ हैं। ऐसा नहीं कि वे विजेता ही हों, लेकिन वीर योद्धा अवश्य हैं। इस संग्रह की कहानियाँ मर्मस्पर्शी तो हैं ही साथ ही मार्मिक भी हैं। इनकी कहानियाँ पाठक को असहज करने की क्षमता रखती हैं। इस संग्रह की कहानियाँ अपनी जड़ों की तरफ लौटने का बार-बार आग्रह करती हैं और पाठकों को गहरे से झकझोरती हैं। इनकी कहानियों पर निर्मल वर्मा ने कहा था कि, ‘उनकी कहानियाँ विस्मित करती हैं।’

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    Chuninda Kahaniyan : Rajendra Laharia

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    ‘चुनिन्दा कहानियाँ’ शृंखला की इस पुस्तक में कथाकार राजेन्द्र लहरिया की पाँच वे लम्बी कहानियाँ संचयित हैं जो ‘हंस’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘अक्सर’, ‘वनमाली कथा’ और ‘पहल’ जैसी हिन्दी की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हो कर, सुधी पाठकों की सराहना व चर्चा का केन्द्र बनी रही थीं। राजेन्द्र लहरिया अपनी कहानियों की समय-समाज-सापेक्ष विषयवस्तु के लिए तो सुपरिचित हैं ही; साथ ही कथावस्तु को कहानी में रूपांतरित करने के अपने विशिष्ट क्राफ़्ट के लिए भी जाने जाते हैं। उनका कहना है, ‘किसी कहानी का कंटेंट तो प्राथमिक महत्त्व रखता ही है; अलबत्ता मैं कहानी के क्राफ़्ट को कम महत्त्व नहीं देता हूँ। यदि किसी कंटेंट (कथावस्तु) को जैसे-तैसे लिख भर दिया जाय, तो ज़रूरी नहीं कि वह कहानी का दर्जा हासिल कर पाये! कहानी तभी बनती है जब उसकी कथावस्तु को एक ख़ास क्राफ़्ट के मार्फ़त प्रस्तुत किया जाय!’ इस संचयन की पाँचों कहानियाँ उनके उपर्युक्त कथन का रचनात्मक सबूत हैं।

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    Cinema aur Stree ki Sarhad

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    यह किताब एक लम्बी कालावधि में लिखे गए लेखों/ आलेखों और वक्तव्यों का संकलन है जिसे पढ़ते हुए इस दौर में सिनेमा और स्त्री तथा सिनेमा, साहित्य और स्त्री के बदलते संबंधों की झलक मिलती है. सिनेमा, साहित्य के बतौर पढ़े समझे जाने पर जो प्रभाव छोड़ता है उसकी एक बानगी भी यह पुस्तक देती है। कविता से लेकर शोध आलेख तक के फॉरमैट में लिखे गए आर्टिकल्स इस किताब का हिस्सा हैं जो सिनेमा को विविध नज़रिए से देखे-समझे जाने की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। कह सकते हैं कि यह किताब सिनेमा के प्रति एक साथ अकादमिक और सृजनात्मक रूझान बनाने-बढ़ाने की दिशा में आगे बढ़ा एक क़दम है।

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    Cinema Ke Bahane

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    Combo : Siyah-Neel-Surkh

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    भवेश दिलशाद की कुछ ग़ज़लें पढ़ने के बाद लगा कि मैंने उनका कलाम पहले क्यों नहीं देखा। हिंदोस्तानी ग़ज़ल में जो बहुत सार्थक और चुनौती भरी रचना हो रही है, उसका एक ज्वलंत उदाहरण दिलशाद हैं।

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    House Husband on Duty

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    जैसे हाउस वाइफ का काम कोई नौकरी नहीं है, ठीक वैसे ही हाउस हसबैंड होना या बनना कोई करियर नहीं है। बावजूद इसके सुबह से लेकर शाम तक कोई न कोई काम लगा रहता है। कोई नोटिस करे या न करे लेकिन खुद और टांगों को पता रहता है वह ड्यूटी पर हैं। यह किताब हाउस हसबैंड के संस्मरणों का पुलिंदा है।

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    Jali Coupon

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    लेव तोलस्तोय ने कुछ लघु उपन्यासाें की भी रचना की थी। उन रचनाओं के हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं थे। हिंदी पाठकों के लिए विदेशी साहित्य के अध्येता विवेक दुबे ने यह महति कार्य किया है। इस रचना को प्रस्तुत करते हुए हमें बहुत खुशी हो रही है।

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    Kahkaha

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    इस उपन्यास की कहानी एक काल्पनिक भविष्य में घटित होती है, जहाँ एक डायस्टोपियन समाज सर्वसत्तावाद के शासन में जीता है। इस समाज में, सामूहिक निगरानी सर्वव्यापी है और लोगों के व्यवहारों पर कड़ा नियंत्रण रखा जाता है। इस सर्वसत्ता का शासन ‘ट्रस्ट’ नामक एक सत्ता के हाथ में है, जो लोगों के जीवन के हर पहलू को एक्सट्रीम कडाई के साथ नियंत्रित करता है। इस सत्ता में हिंसा को मनोरंजन माना जाता है, ट्रस्ट ने नागरिकों से दो वादे किए हैं: पहला ट्रस्ट की सत्ता में किसी भी नागरिक की मृत्यु नहीं होगी। और दूसरा ट्रस्ट की सत्ता में उसके समर्पित नागरिकों का मनोरंजन हमेशा जारी रहेगा। इन वादों के बदले में, ट्रस्ट नागरिकों से पूर्ण समर्पण की मांग करता है, जो कि अनिवार्य है। ट्रस्ट के समाज में, सभी मानवीय मूल्यों,भावनाओं, रिश्तों और पारिवारिक अवधारणाओं को समाप्त कर दिया गया है। यहां तक कि प्रेम पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। ऐसे माहौल में, कहानी का नायक आनंद प्रकाश, जो हाल ही में जेल से रिहा हुआ है। नायिका वेदांती के प्रेम में पड़ जाता है। इन दोनों का प्रेम ही सत्ता के विरोध का कारण बन जाता है।

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    Kendra Mein Kahani

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    केन्द्र में कहानी राकेश बिहारी के ऐसे निबंधों का संग्रह है जो कहानी का तात्विक या दार्शनिक विवेचन नहीं करते बल्कि कहानी के कथ्य का सामाजिक संदर्भों में विश्लेषण करते हैं। पिछले बीस वर्षों की कहानियों का यह लेखा-जोखा बेहद पठनीय और गहरी अंतर्दृष्टि से कहानी कला की सार्थकता का अनुसंधान करता है। राकेश बिहारी ने जहां स्त्री अस्मिता की कहानियों का विस्तार से विश्लेषण किया है वहीं कहानियों में आये बुजुर्ग पात्रों को भी आत्मीय संवेदना से पकडऩे की कोशिश की है। कहने की जरूरत नहीं है कि ये अलग-अलग निबंध पिछले पन्द्रह वर्षों की कहानियों के बिखरे इतिहास को समेटने की कोशिश हैं। क्या ही अच्छा होता कि अगर नई कहानी या जनवादी कहानी के साथ इनकी तुलना और अलगाव के तत्वों पर भी थोड़ी बातचीत होती। तब यह संग्रह ज्यादा सम्पूर्ण होता। फिर भी अपने वर्तमान रूप में राकेश बिहारी के ये निबंध उनकी बौद्धिक सजगता और विश्लेषण की गहरी क्षमता को बेहद रोचक ढंग से हमारे सामने रखते हैं। इन्हें पढऩा कहानियों में आए विविध पात्रों, स्थितियों और समस्याओं से रूबरू होना है। -राजेन्द्र यादव

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    Lakeer tatha anya Kahaniyan

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    जिस सियासत का काम समाज को बेहतरी के रास्ते पर ले जाना था, उस सियासत का मकसद जब ख़ुद की बेहतरी तक सिमट जाए और अपनी बेहतरी के लिए वह समाज के भीतर तरह-तरह की ‘लकीर’ खींचने से भी गुरेा न करे, तो इससे आम लोगों को भले बहुत अधिक बेचैनी न हो, लेकिन अदीबों को तो होती है! चूँकि साहित्य हमेशा सुंदर का स्वप्न देखता है और अपने देशकाल और समाज से लेकर पूरी दुनिया को सुंदर देखने का हामी होता है, इसलिए सबसे यादा बेचैनी कलाकारों, अदीबों और इंसानियतपसंद लोगों को होती है. उर्दू के प्रक्चयात कथाकार तारिक़ छतारी अपनी बेहद संवेदनशील और सतर्क भाषा में लकीर की सियासत से बन रहे नये तरह के समाज में घटित होनेवाली लोमहर्षक घटना से पाठकों को झंझोड़ देते हैं. जिस देश में अनेक मुस्लिम कवियों ने भी भगवान कृष्ण को अपनी कविता और कहानी का विषय बनाया, जिस देश के लोग कण-कण में ईश्वर की उपस्थिति की बात करते हैं, उस देश में लकीर खिंच जाने के कारण कृष्ण बने के एक मासूम बालक को भीड़ सिर्फ़ इसलिए मार देती है कि उसका संबंध किसी अन्य समुदाय से है! तारिक़ छतारी समाज के इसी बदलते हुए स्वरूप को अपनी रचना का आधार बनाते हैं और अपने समुदाय से बाहर के जीवन की भी उतनी ही प्रामाणिक कहानी लिखते हैं, जितने प्रामाणिक वर्णन अपने समुदाय का करते हैं. यह प्रवृत्ति आज विरल है और विरल प्रवृत्तियों को ही रचने वाले तारिक़ साहब उर्दू के विरल कथाकार हैं!

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