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विगत पच्चीस-तीस वर्षों में हमारी अर्थव्यवस्था निगमीकरण, विनिवेश और निजीकरण की राह पर चलते हुए विकास और आभासी विकास के दो सिरों के बीच आँकड़ों का खेल खेल रही है। कॉर्पोरेट की बात करते हुए अमूमन हमारी निगाहें सिर्फ निजी कंपनियों की तरफ ही जाती हैं। हम भूल जाते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र भी कॉर्पोरेट जगत का हिस्सा है। निजी और सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्रों में काम करते हुए मैंने अनुभव किया है कि प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर के बीच एक लम्बा फासला है और उस फासले की कुछ अलग किस्म की परिणतियाँ भी। अधिकाधिक लाभ और पूँजी निर्माण के लिये कॉस्ट कंट्रोल के नाम पर निजी क्षेत्रों में हो रहा श्रम का शोषण जहाँ ट्रेड यूनियन की जरूरत को बार-बार रेखांकित करता है, वहीं सरकारी दफ्तरों और पब्लिक सेक्टर में व्याप्त अकर्मण्यता और तथाकथित ट्रेड यूनियन की बेईमान चालाकियों के पीछे से झाँकती उनकी असलियत को देख उनके प्रति एक विक्षोभ भी पैदा होता है। परस्पर दो प्रतिकूल परिस्थितियों से उत्पन्न ये जटिलतायें निश्चित तौर पर पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ी हैं। इन्हीं दो छोरों के बीच यह समय भी पसरा है और ये कहानियाँ भी।

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