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    Aadha Khakhadee Aadha Dhaan

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    सिकुड़ते खेत और फैलते शहर के बीच किसानों की बेबसी हमारे समय का एक ऐसा सच है, जिसने गांवों की तस्वीर को बेतरह बदल दिया है। बदलाव और ठहराव की संयुक्त जमीन पर खड़े आज के गाँव प्रेमचन्द और रेणु के गाँवों से कई अर्थों में भिन्न हैं। बाज़ार की चकाचौंध और अस्मिता के प्रश्नों के बीच ग्रामीण जनजीवन खासा जटिल और विडंबनापूर्ण हो उठा है। पंकज मित्र की ये कहानियाँ ग्रामीण जीवन की नई छवियों को तो उद्घाटित करती ही हैं, आवारा पूँजी के सहारे फलती-फूलती मॉल और माल संस्कृति की दुरभिसंधियों को भी पहचानती हैं। इन कहानियों में स्थान और समय भी जीवंत किरदार की तरह उपस्थित होते हैं। इनसे गुजरना गाँव और कस्बों के नए जीवन यथार्थो की सच्ची गवाहियों का साक्षात्कार करना है।

    275.00
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    Alexa! My Darling

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    प्रेम भी एक लोकतांत्रिक करवाई है alexa! इसलिए मैं समझता हूं कि अगर दो व्यक्तियों के बीच कहीं कोई प्रेम समाप्त होता है तो कहीं ना कहीं लोकतंत्र भी दम तोड़ता है। इसलिए जरूरी है कि अगर हम एक लोकतांत्रिक समाज में रहते हैं तो कम से कम संवाद जरूर करें। इस संवाद में ही प्रेम छिपा है।

    160.00
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    Bahara Gantantra

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    ‘बहरा गणतंत्र’ की शुरुआत होती है सैनिकों के कब्जे वाले एक देश में, शासन की क्रूरता के खिलाफ विरोध से। हालाँकि उस देश की भौगोलिक स्थिति अस्पष्ट है, कहानी की दिलदहला देने वाली घटनाओं में हम अपने आप को ढूढ़ने लगते हैं। दिखने लगता है हमें, हमारा समय, हमारा देश। यह एक अद्भुत दृष्टांत है जो कविताओं में खुलता है, एक-एक करके, परत-दर- परत : विरोध पर काबू करने के लिए एक सैनिक का गोलियों से एक बधिर बच्चे को भून डालना– और गोली की उस आवाज़ से पूरे शहर का बधिर बन जाना। सर्वत्र व्याप्त ख़ामोशी और सैनिकों की क्रूरता के उस माहौल में नागरिक आपस में इशारों की जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं, उसे पुस्तक में भलीभांति चित्रित किया गया है।

    180.00
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    Bandook tatha anya Kahaniyan

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    तारिक़ छतारी ने बहुत ज़्यादा कहानियाँ नहीं लिखी हैं, लेकिन जितनी लिखी हैं, उतनी ही उर्दू कथा-साहित्य में उनकी सशक्त पहचान के लिए पर्याप्त हैं। आम तौर पर उर्दू में लिखनेवाले मुस्लिम कथाकारों के पास हिंदू समाज से जुड़ी हुई कहानियाँ नहीं होतीं। क्योंकि अपने समुदाय से बाहर किसी अन्य समुदाय से उनका संपर्क और संवाद उतना नहीं होता। हिंदू-मुस्लिम के बीच धार्मिक मुद्दों को आधार बनाकर जिन कथाकारों ने कहानियाँ लिखी हैं, उनमें एक समुदाय का दूसरे समुदाय के बारे में अविश्वास, भरोसे में कमी, हिंसा, बहस और अंतत: अलगाव नज़र आता है। इसके उलट तारिक़ छतारी ने इस मानसिकता की जड़ को पकड़कर अपनी ‘बंदूक़’ कहानी में दिखाया कि नफ़रत के सौदागर तरह-तरह से समाज में नफ़रत फैलाते हैं, लेकिन समाज में जब एक-दूसरे से संवाद होता रहे, तो वह खाई ज़्यादा देर तक नहीं टिक सकती। हिंदू-मुस्लिम के बीच पैदा हुई खाई के बाद एक और हिजरत को तैयार शेख़ सलीमुद्दीन और उनके बेटे ग़ुलाम हैदर को जिस तरह हिंदू समुदाय के लोग रोक लेते हैं, वैसी कोई और कहानी हिंदी में नहीं लिखी गई। उर्दू में भी शायद ही ऐसी कोई कहानी हो।

    225.00
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    Bapu : Ek Kavi Ki Chitar

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    इसमें आश्चर्य करने वाली बात नहीं है कि एक कवि गाँधीजी को याद करता है। हिंसा का जो विद्रूप चेहरा आज पूरी दुनिया को डरा रहा है उसके सामने अहिंसा ही अपने पग रोक सकती है। इसके लिए ज़रूरी है व्यक्तियों के मन में दबे हुए आत्मबल को जगाने की। बापू जिन जीवन मूल्यों को लेकर जिए उनको फिर से चेतन करने का वक़्त है। कोई भी समाज मूल्यों के बिना जीवित नहीं रह सकता। यह संकट वर्तमान का संकट नहीं है, यह तो आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का संकट है। कविता हमेशा भविष्य को परिभाषित करती है जिसकी साख भारतीय कविता परम्परा भरती है। उसी काव्य परम्परा की एक सबल धारा है राजस्थानी कविता परम्परा और उस परम्परा का एक योग्य कवि इन कविताओं के मिस अपनी समृद्ध भाषा-परम्परा की विविध छवियों को पाठकों को सौंप रहा है।
    अर्जुनदेव चारण, प्रख्यात राजस्थानी कवि-नाटककार

    162.00
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    Bapu ke Saye Mein

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    “श्री वीरेन्द्र नारायण हर दृष्टि से नाटक लिखने के अधिकारी हैं। उनका ज्ञान केवल पुस्तकों तक ही सीमित नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि से भी उनका अनुभव बहुत गहरा है। भारत सरकार के गीत और नाटक विभाग से उनका संबंध है। स्वयं उन्होंने अनेक जटिल नाटकों का निर्देशन किया है। विदेश में रहकर अनेक वर्षों तक उन्होंने इस कला का अध्ययन किया है। स्वयं उनके नाटक सफलतापूर्वक रंगमंच पर अभिनीत हो चुके हैं। अनेक नाटकों का गंभीर अध्ययन उन्होंने प्रस्तुत किया है। इस कला को गंभीरता से ग्रहण करने वाले कुछ इने-गिने व्यक्तियों में ही उनकी गिनती की जा सकती है। ऐसे व्यक्ति के द्वारा लिखे गए नाटक की उपयोगिता और सफलता स्वयंसिद्ध है।” –विष्णु प्रभाकर

    108.00
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    Bijji Ka Kathalok

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    लोकजीवन से गहरी संसक्ति और लोकमानस की वैज्ञानिक समझ रखनेवाले सर्वोपरि कथाकारों में बिज्जी का नाम बेहिचक लिया जा सकता है। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए निरंतर यह महसूस होता है कि वे स्वयं लोक के अभिन्न अंग भी हैं और द्रष्टा भी। यही वजह है कि अपने नितांत निजी अनुभवों को कथा में पिरोते हुए भी उनमें भावुकता का लेशमात्र भी दिखाई नहीं देता। यह बिज्जी की रचनाधर्मिता की ख़ासियत है। इसी के बलबूते वे अपनी रचनाओं में ऐसा लोक रच पाए जो वास्तविक भी है और उनका कल्पनालोक भी है। सामंती परिवेश के भीतर रहनेवाले पात्रों में प्रगतिशील विवेक और रूढ़ियों से टकराने की क्षमता इसी से उपजी है। राजस्थानी लोकमानस की मुकमल पहचान बिज्जी के कथालोक में डूबकर ही की जा सकती है। किसी रचनाकार के लिए किंवदंती में बदल जाना यदि सबसे बड़ी उपलब्धि मान ली जाए तो बिज्जी इस उपलब्धि को अपने जीवनकाल में ही हासिल कर चुके थे। राजधानियों की चमक-दमक से कोसों दूर ग्रामांचल में रहकर साहित्य साधना करते हुए नोबेल नोमिनेशन तक की यात्रा ने इस किंवदंती को संभव बनाया।

    180.00
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    Chayanit Kahaniyan : Nikolay Vasilyevich Gogol

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    निकोलाई वसीलिविच गोगोल का जन्म 19 मार्च 1809 को यूक्रेन के पोल्टावा प्रान्त के सोरोकिंस्की कस्बे में हुआ था। यूक्रेन के इस हास्यकार, नाटककार और उपन्यासकार की रूसी भाषा में लिखी रचनाओं ने रूसी साहित्य की दिशा को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। उसके उपन्यास ‘डेड सोल्स’ (मृत आत्माएँ-1842) और कहानी ‘द ओवरकोट’ (ओवरकोट-1842) को रूसी यथार्थवाद की 19वीं सदी की महान परंपरा की नींव माना जाता है। इन कहानियों से गोगोल की प्रौढ़ कलात्मकता का पूर्ण परिचय मिल जाता है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता उसका सूक्ष्म व्यंग्य है जो पाठकों को हँसाता है, गुदगुदाता है और ग़मगीन बनाता है तथा साथ ही यह सोचने पर मजबूर करता है कि कहानियों में दर्शाए गए पात्र सर्वथा हास्यास्पद नहीं हैं, बल्कि परिस्थितियों ने इन्हें दयनीय बना दिया है। गोगोल की इसी विशेषता पर टिप्पणी करते हुए बेलिंस्की ने गोगोल के व्यंग्य को ‘आंसुओं के बीच हँसी’ कहा है।

    180.00
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    Chuninda Kahaniyan : Deepak Sharma

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    दीपक शर्मा की उपस्थिति हिंदी कथाजगत को समृद्ध करती है। जीवन का शायद ही कोई क्षेत्र हो जो दीपक शर्मा की कहानियों से छूटा हो। समाज के दलित, वंचित और उपेक्षित वर्ग का पक्ष, किसी शब्दाडम्बर के बिना शायद ही किसी ने इन जैसे प्रभावी रूप में प्रस्तुत किया हो। इनकी रचनाओं का परिवेश जितना व्यापक है, उतना ही प्रामाणिक भी। ऐसी प्रामाणिकता हिंदी में कहीं और नहीं दिखती है, और न ही वैसा विस्तार। दीपक शर्मा के पात्र, विशेषकर नारीपात्र आत्मविश्वासी और दृढ़ हैं। ऐसा नहीं कि वे विजेता ही हों, लेकिन वीर योद्धा अवश्य हैं। इस संग्रह की कहानियाँ मर्मस्पर्शी तो हैं ही साथ ही मार्मिक भी हैं। इनकी कहानियाँ पाठक को असहज करने की क्षमता रखती हैं। इस संग्रह की कहानियाँ अपनी जड़ों की तरफ लौटने का बार-बार आग्रह करती हैं और पाठकों को गहरे से झकझोरती हैं। इनकी कहानियों पर निर्मल वर्मा ने कहा था कि, ‘उनकी कहानियाँ विस्मित करती हैं।’

    200.00
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    Chuninda Kahaniyan : Rajendra Laharia

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    ‘चुनिन्दा कहानियाँ’ शृंखला की इस पुस्तक में कथाकार राजेन्द्र लहरिया की पाँच वे लम्बी कहानियाँ संचयित हैं जो ‘हंस’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘अक्सर’, ‘वनमाली कथा’ और ‘पहल’ जैसी हिन्दी की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हो कर, सुधी पाठकों की सराहना व चर्चा का केन्द्र बनी रही थीं। राजेन्द्र लहरिया अपनी कहानियों की समय-समाज-सापेक्ष विषयवस्तु के लिए तो सुपरिचित हैं ही; साथ ही कथावस्तु को कहानी में रूपांतरित करने के अपने विशिष्ट क्राफ़्ट के लिए भी जाने जाते हैं। उनका कहना है, ‘किसी कहानी का कंटेंट तो प्राथमिक महत्त्व रखता ही है; अलबत्ता मैं कहानी के क्राफ़्ट को कम महत्त्व नहीं देता हूँ। यदि किसी कंटेंट (कथावस्तु) को जैसे-तैसे लिख भर दिया जाय, तो ज़रूरी नहीं कि वह कहानी का दर्जा हासिल कर पाये! कहानी तभी बनती है जब उसकी कथावस्तु को एक ख़ास क्राफ़्ट के मार्फ़त प्रस्तुत किया जाय!’ इस संचयन की पाँचों कहानियाँ उनके उपर्युक्त कथन का रचनात्मक सबूत हैं।

    225.00
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    Cinema aur Stree ki Sarhad

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    यह किताब एक लम्बी कालावधि में लिखे गए लेखों/ आलेखों और वक्तव्यों का संकलन है जिसे पढ़ते हुए इस दौर में सिनेमा और स्त्री तथा सिनेमा, साहित्य और स्त्री के बदलते संबंधों की झलक मिलती है. सिनेमा, साहित्य के बतौर पढ़े समझे जाने पर जो प्रभाव छोड़ता है उसकी एक बानगी भी यह पुस्तक देती है। कविता से लेकर शोध आलेख तक के फॉरमैट में लिखे गए आर्टिकल्स इस किताब का हिस्सा हैं जो सिनेमा को विविध नज़रिए से देखे-समझे जाने की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। कह सकते हैं कि यह किताब सिनेमा के प्रति एक साथ अकादमिक और सृजनात्मक रूझान बनाने-बढ़ाने की दिशा में आगे बढ़ा एक क़दम है।

    225.00
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    Cinema Ke Bahane

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    225.00