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    Bijji Ka Kathalok

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    लोकजीवन से गहरी संसक्ति और लोकमानस की वैज्ञानिक समझ रखनेवाले सर्वोपरि कथाकारों में बिज्जी का नाम बेहिचक लिया जा सकता है। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए निरंतर यह महसूस होता है कि वे स्वयं लोक के अभिन्न अंग भी हैं और द्रष्टा भी। यही वजह है कि अपने नितांत निजी अनुभवों को कथा में पिरोते हुए भी उनमें भावुकता का लेशमात्र भी दिखाई नहीं देता। यह बिज्जी की रचनाधर्मिता की ख़ासियत है। इसी के बलबूते वे अपनी रचनाओं में ऐसा लोक रच पाए जो वास्तविक भी है और उनका कल्पनालोक भी है। सामंती परिवेश के भीतर रहनेवाले पात्रों में प्रगतिशील विवेक और रूढ़ियों से टकराने की क्षमता इसी से उपजी है। राजस्थानी लोकमानस की मुकमल पहचान बिज्जी के कथालोक में डूबकर ही की जा सकती है। किसी रचनाकार के लिए किंवदंती में बदल जाना यदि सबसे बड़ी उपलब्धि मान ली जाए तो बिज्जी इस उपलब्धि को अपने जीवनकाल में ही हासिल कर चुके थे। राजधानियों की चमक-दमक से कोसों दूर ग्रामांचल में रहकर साहित्य साधना करते हुए नोबेल नोमिनेशन तक की यात्रा ने इस किंवदंती को संभव बनाया।

    180.00
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    Kendra Mein Kahani

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    केन्द्र में कहानी राकेश बिहारी के ऐसे निबंधों का संग्रह है जो कहानी का तात्विक या दार्शनिक विवेचन नहीं करते बल्कि कहानी के कथ्य का सामाजिक संदर्भों में विश्लेषण करते हैं। पिछले बीस वर्षों की कहानियों का यह लेखा-जोखा बेहद पठनीय और गहरी अंतर्दृष्टि से कहानी कला की सार्थकता का अनुसंधान करता है। राकेश बिहारी ने जहां स्त्री अस्मिता की कहानियों का विस्तार से विश्लेषण किया है वहीं कहानियों में आये बुजुर्ग पात्रों को भी आत्मीय संवेदना से पकडऩे की कोशिश की है। कहने की जरूरत नहीं है कि ये अलग-अलग निबंध पिछले पन्द्रह वर्षों की कहानियों के बिखरे इतिहास को समेटने की कोशिश हैं। क्या ही अच्छा होता कि अगर नई कहानी या जनवादी कहानी के साथ इनकी तुलना और अलगाव के तत्वों पर भी थोड़ी बातचीत होती। तब यह संग्रह ज्यादा सम्पूर्ण होता। फिर भी अपने वर्तमान रूप में राकेश बिहारी के ये निबंध उनकी बौद्धिक सजगता और विश्लेषण की गहरी क्षमता को बेहद रोचक ढंग से हमारे सामने रखते हैं। इन्हें पढऩा कहानियों में आए विविध पात्रों, स्थितियों और समस्याओं से रूबरू होना है। -राजेन्द्र यादव

    234.00
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    Rajbhasha Hindi aur Ashmitabodh

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    इस समय भाषा को लेकर बड़ा कोलाहल है। इसकी बड़ी वजह राजनीतिक पहचान की कामना में निहित जटिल संरचना है। जब-जब सत्ता का हिस्सा बंटने-बंटाने की गतिविधियां तेज होती हैं वे सारे तत्त्व खोजकर खड़े किए जाते हैं, जिनसे ‘अपने पक्ष’ का संघर्ष तेज हो सके। जैसे हिंदी को यों तो उर्दू के साथ मौसी की तरह कहते लोकप्रिय मंचों के मुहावरेकार तालियां लूटते हैं, लेकिन राजनीतिक लूट के वक्त यही वर्ग विशेष की पहचान निरूपित होने लगती है। चूंकि भाषा, मातृ भाषा, राष्ट्र भाषा जैसे प्रश्‍न भारत के संदर्भ में बहुत संवेदनशील रहे हैं, इसलिए हर कोई अपने अपने हिसाब से इन्हें सुलझाने का दावा करता है। क्षेत्रीय अस्मिताएं, स्थानीय राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं, अखिल भारतीय सांस्कृतिक स्वरूप, प्रशासनिक ताना बाना तथा इतिहास की छायाएं, सब मिलकर कभी कभी कारुणिक स्थिति बना देते हैं। ऐसे माहौल में जबकि राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु से लेकर गांधी, लोहिया तक वैचारिक रूप से हमारे पास मौजूद हैं, फिलहाल कई तरह के वर्ग भाषा को लेकर सक्रिय हैं। एक वे हैं जो लुप्त होती भाषाओं के साथ उनकी सामाजिकी पर गहन शोध चिंतन कर रहे हैं। कुछ हैं जो ऊंची-ऊंची सभा-गोष्ठियों, मेलों, मंचों से शौर्यपूर्वक अपने पक्ष रेखांकित करते रहते हैं। कुछ वे हैं,जो समय-समय पर उठने वाले प्रश्नों को संबोधित कर उनकी जटिलताओं से आमजन को परिचित कराने की कोशिश करते हैं।

    225.00
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    Sakshatkar Se Sakshatkar

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    यह किताब डॉ. भारत भूषण उपाध्याय के समय-समय पर पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों का संग्रह है। शेक्सपियर, गांधी, बोर्हेस, स्टाइनबेक, ओरियाना फलासी पर लिखे गये इन लेखों को कथादेश, अकार और पहल जैसी पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया था। इऩ निबंधों में परिश्रम और समर्पण से एकत्र की गयी जरूरी जानकारियाँ हैं। असाधारण प्रतिभा और प्रज्ञा लिए हुए लोगों के जीवन की सच्चाइयाँ और स्वप्न हैं वहीं अपनी पढ़ी गयी विस्तृत चीजों को दूसरों के लिए रुचिकर, संक्षिप्त और जरूरी बनाए जाने का समर्पित संघर्ष भी। यहाँ यह भी बताना जरूरी लग रहा है कि इस किताब में जिन विषयों को अपने फोकस में रखा गया है उनकी गहरी, विस्तृत और समकालीन जानकारियाँ हिन्दी में बहुत ही कम उपलब्ध हैं।

    240.00
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    Samvad Path

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    अंबरीश त्रिपाठी हमारे समय के एक संभावनाशील युवा आलोचक हैं। कृति, कृतित्व और उसका युगबोध इस लेखक के लिए निकट और सापेक्षतामूलक विधान हैं। विषय को ऐसे विस्तृत गतिशील परिप्रेक्ष्य से ग्रहण करना कि वह अपनी सर्वकालिक मूल्यचेतना में आलोकित होकर सामने आए, किसी भी आलोचक के आलोचनात्मक विवेक का सबसे ज़रूरी पक्ष है। साहित्य और संस्कृति के विषय गहरे सांस्कृतिक नैरंतर्य का साक्ष्य होते हैं और इस निरंतरता के प्रकाश की नवैयतें देशकाल के अनुसार बदल कर भी जीवन मूल्यों के हिसाब से भीतर कहीं गहरी एकतानता में हुआ करती हैं। ‘संवाद पथ’ के आलोचनात्मक आलेखों में ऐसा ही वैविध्य मिलता है तथा एकता का रंग भी यही है। यहां राम हैं, भक्ति युग है, गांधी हैं, टैगोर हैं तो विनोद कुमार शुक्ल भी हैं। आलोचनात्मक विश्लेषण के लिए चुने गए विषय होकर आए ये सीमित पाठ भर नहीं हैं । यहां यह रेखांकित है कि समाज और संस्कृति की गतिशील लोकपक्षीयता का मूल्य ही वह कसौटी है जिससे व्यापक स्वीकार्यता तय होती है। इस किताब की भाषा ने बहुत आश्वस्त किया है। इसमें चिंतन विश्लेषण का प्रवाही रंग है। साहित्य के कोमल मानवीय आयामों का लालित्य संभालने वाली खूबी तो है ही,साथ ही एक मौलिक उठान भी है जो हमें विषय के सुंदरतम पक्षों से जोड़ती चलती है।

    275.00
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    Czech Sahitya Samay Aur Sach

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    Animi qui et nemo consequatur iste totam et. Id nihil id enim consequatur provident non. Ratione est voluptas aperiam vero architecto.

    225.00
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    A Journey through Mahabharata

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    The greatest of our ancient masters like Valmiki and Vyasa frequently say things which mean one thing when we casually listen to them but quite different things when we pause and think about them, often meaning more than one thing at a time. Speaking of Indian philosophers, the French historian of philosophy EWF Tomlin once said that “Indian thought arrives at subtleties of distinction so varied and acute that the uninitiated and unprepared reader may well receive the impression that Indian philosophers enjoy the use of half a dozen intellects instead of one.” The authors of our epics belong to that category of masters and to understand them and truly appreciate them, we have to delve deep into what they say. Journey through Mahabharata is the result of my attempts at different times to travel to the hidden depths of the epic.

    468.00
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    Bharat 1857 se 1957 Itihas par ek Drishti

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    पुस्तक का शीर्षक भले ही 1857 से 1957 तक के भारत में सीमित रखा गया हो परंतु 1857 से पूर्व के एक शतक तक की पृष्ठभूमि से ही इसका प्रारंभ किया गया है। पुस्तक के अंतिम अध्याय में भी 1957 के बाद के भारत का भविष्य क्या होगा तथा डॉक्टर  आंबेडकर के सपने के अनुसार क्या हम इस देश के भविष्य को संवार  पाएंगे? यह प्रश्‍न लेखक ने पाठकों के समुख उपस्थित किया है। लेखक का अपने विषय को 1957 तक सीमित रखने के पीछे शायद यही भाव रहा हो कि पंडित नेहरू की सत्ता प्राप्ति के लिए अपनाई गई रणनीति की जानकारी पाठकों तक पहुंचे। लेखक की यह पहली ही पुस्तक है जो पठनीय हुई और यह उनकी साहित्य-यात्रा के लिए एक उत्साहवर्धक बात है।

    225.00
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    Vishvayuddh Aur Czech Sahitya

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    तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया और सप्रति चेक गणराज्य के ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर बदलाव के कई पड़ाव आए हैं जिसे चेक साहित्य में तलाशा जा सकता है। इस राष्ट्र ने विश्वयुद्ध की त्रासदी और नाज़ियों की तानाशाही को सहा है; जिसका प्रत्यक्षऔर अप्रत्यक्ष प्रभाव उनके साहित्य पर भी पड़ा। चेक साहित्यकारों ने अपनी सकारात्मक भूमिका निभाते हुए विश्‍व साहित्य को समृद्ध किया और कई कालजयी कृतियाँ दीं। विश्वयुद्ध कालीन लेखकों में मुख्य रूप से शामिल जोसेफ श्कवोरेस्की, यान ओत्चेनाशेक, मिलान कुन्देरा,कारेल चापेक, फ्रांत्स काफ्का, जुलियस फ़्यूचिक, ईवान क्लीमा, यारोस्लाव साइफ़र्त, यारोस्लाव हासेक, यारोस्लाव फोगलर, ईरी वोल्कर, वॉस्लाव हावेल ने चेक साहित्य को एक नया तेवर प्रदान किया है। लेखक ने इस पुस्तक में चेक साहित्य पर विश्वयुद्ध के प्रभावों का अध्ययन किया है जिसके माध्यम से पाठक का परिचय एक नये संसार से होगा।

    315.00
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    Czech Sahitya Bhasha v Sanskritik Pariprekshya

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    225.00
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    Samkaleen Laghukatha ka Samiksha-Saundarya

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    लघुकथा लेखन को आसान सी विधा मानकर बहुत लोग इस विधा के लेखन की ओर मुड़े और जानेअनजाने अपनी अधकचरी बौद्धिकता और अज्ञान के बूते इस विधा का अहित करते चले गए। इन बहुत से लोगों में वे भी थे जो खालिस पाठक थे और लेखक बनना चाहते थे। जो कुछ बनना चाहते हैं उन्हें कोई नहीं रोक सकता। वे बन गए। वे बिना पढ़े लेखक बन गए। उन्होंने बस उसी तरह की लघुकथाएं पढ़ी थीं और वे उसी तरह के लघुकथा लेखक बन गए। यह विराट स्तर पर धर्म परिवर्तन से भी अधिक संगीन मामला था जिसने साहित्य को बहुत बड़े पैमाने पर चोट पहुंचाई लेकिन इसकी कोई चर्चा नहीं हुई। इस पुस्तक में लघु कथा के सौन्दर्यशास्त्र पर चर्चा की गई है और इस विधा की महत्ता को स्थापित करने का प्रयास ही प्रधान है।

    270.00
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    Kitabon Mein Stree

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    Officia quidem necessitatibus qui. Sit aut et laborum ut a eum. Omnis laboriosam minima alias saepe numquam.

    180.00