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    Bijji Ka Kathalok

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    लोकजीवन से गहरी संसक्ति और लोकमानस की वैज्ञानिक समझ रखनेवाले सर्वोपरि कथाकारों में बिज्जी का नाम बेहिचक लिया जा सकता है। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए निरंतर यह महसूस होता है कि वे स्वयं लोक के अभिन्न अंग भी हैं और द्रष्टा भी। यही वजह है कि अपने नितांत निजी अनुभवों को कथा में पिरोते हुए भी उनमें भावुकता का लेशमात्र भी दिखाई नहीं देता। यह बिज्जी की रचनाधर्मिता की ख़ासियत है। इसी के बलबूते वे अपनी रचनाओं में ऐसा लोक रच पाए जो वास्तविक भी है और उनका कल्पनालोक भी है। सामंती परिवेश के भीतर रहनेवाले पात्रों में प्रगतिशील विवेक और रूढ़ियों से टकराने की क्षमता इसी से उपजी है। राजस्थानी लोकमानस की मुकमल पहचान बिज्जी के कथालोक में डूबकर ही की जा सकती है। किसी रचनाकार के लिए किंवदंती में बदल जाना यदि सबसे बड़ी उपलब्धि मान ली जाए तो बिज्जी इस उपलब्धि को अपने जीवनकाल में ही हासिल कर चुके थे। राजधानियों की चमक-दमक से कोसों दूर ग्रामांचल में रहकर साहित्य साधना करते हुए नोबेल नोमिनेशन तक की यात्रा ने इस किंवदंती को संभव बनाया।

    120.00
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    Sakshatkar Se Sakshatkar

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    यह किताब डॉ. भारत भूषण उपाध्याय के समय-समय पर पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों का संग्रह है। शेक्सपियर, गांधी, बोर्हेस, स्टाइनबेक, ओरियाना फलासी पर लिखे गये इन लेखों को कथादेश, अकार और पहल जैसी पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया था। इऩ निबंधों में परिश्रम और समर्पण से एकत्र की गयी जरूरी जानकारियाँ हैं। असाधारण प्रतिभा और प्रज्ञा लिए हुए लोगों के जीवन की सच्चाइयाँ और स्वप्न हैं वहीं अपनी पढ़ी गयी विस्तृत चीजों को दूसरों के लिए रुचिकर, संक्षिप्त और जरूरी बनाए जाने का समर्पित संघर्ष भी। यहाँ यह भी बताना जरूरी लग रहा है कि इस किताब में जिन विषयों को अपने फोकस में रखा गया है उनकी गहरी, विस्तृत और समकालीन जानकारियाँ हिन्दी में बहुत ही कम उपलब्ध हैं।

    240.00
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    Samvad Path

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    अंबरीश त्रिपाठी हमारे समय के एक संभावनाशील युवा आलोचक हैं। कृति, कृतित्व और उसका युगबोध इस लेखक के लिए निकट और सापेक्षतामूलक विधान हैं। विषय को ऐसे विस्तृत गतिशील परिप्रेक्ष्य से ग्रहण करना कि वह अपनी सर्वकालिक मूल्यचेतना में आलोकित होकर सामने आए, किसी भी आलोचक के आलोचनात्मक विवेक का सबसे ज़रूरी पक्ष है। साहित्य और संस्कृति के विषय गहरे सांस्कृतिक नैरंतर्य का साक्ष्य होते हैं और इस निरंतरता के प्रकाश की नवैयतें देशकाल के अनुसार बदल कर भी जीवन मूल्यों के हिसाब से भीतर कहीं गहरी एकतानता में हुआ करती हैं। ‘संवाद पथ’ के आलोचनात्मक आलेखों में ऐसा ही वैविध्य मिलता है तथा एकता का रंग भी यही है। यहां राम हैं, भक्ति युग है, गांधी हैं, टैगोर हैं तो विनोद कुमार शुक्ल भी हैं। आलोचनात्मक विश्लेषण के लिए चुने गए विषय होकर आए ये सीमित पाठ भर नहीं हैं । यहां यह रेखांकित है कि समाज और संस्कृति की गतिशील लोकपक्षीयता का मूल्य ही वह कसौटी है जिससे व्यापक स्वीकार्यता तय होती है। इस किताब की भाषा ने बहुत आश्वस्त किया है। इसमें चिंतन विश्लेषण का प्रवाही रंग है। साहित्य के कोमल मानवीय आयामों का लालित्य संभालने वाली खूबी तो है ही,साथ ही एक मौलिक उठान भी है जो हमें विषय के सुंदरतम पक्षों से जोड़ती चलती है।

    180.00
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    Czech Sahitya Samay Aur Sach

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    150.00
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    A Journey through Mahabharata

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    The greatest of our ancient masters like Valmiki and Vyasa frequently say things which mean one thing when we casually listen to them but quite different things when we pause and think about them, often meaning more than one thing at a time. Speaking of Indian philosophers, the French historian of philosophy EWF Tomlin once said that “Indian thought arrives at subtleties of distinction so varied and acute that the uninitiated and unprepared reader may well receive the impression that Indian philosophers enjoy the use of half a dozen intellects instead of one.” The authors of our epics belong to that category of masters and to understand them and truly appreciate them, we have to delve deep into what they say. Journey through Mahabharata is the result of my attempts at different times to travel to the hidden depths of the epic.

    312.00
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    Bharat 1857 se 1957 Itihas par ek Drishti

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    पुस्तक का शीर्षक भले ही 1857 से 1957 तक के भारत में सीमित रखा गया हो परंतु 1857 से पूर्व के एक शतक तक की पृष्ठभूमि से ही इसका प्रारंभ किया गया है। पुस्तक के अंतिम अध्याय में भी 1957 के बाद के भारत का भविष्य क्या होगा तथा डॉक्टर  आंबेडकर के सपने के अनुसार क्या हम इस देश के भविष्य को संवार  पाएंगे? यह प्रश्‍न लेखक ने पाठकों के समुख उपस्थित किया है। लेखक का अपने विषय को 1957 तक सीमित रखने के पीछे शायद यही भाव रहा हो कि पंडित नेहरू की सत्ता प्राप्ति के लिए अपनाई गई रणनीति की जानकारी पाठकों तक पहुंचे। लेखक की यह पहली ही पुस्तक है जो पठनीय हुई और यह उनकी साहित्य-यात्रा के लिए एक उत्साहवर्धक बात है।

    150.00
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    Czech Sahitya Bhasha v Sanskritik Pariprekshya

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    150.00
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    Samkaleen Laghukatha ka Samiksha-Saundarya

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    लघुकथा लेखन को आसान सी विधा मानकर बहुत लोग इस विधा के लेखन की ओर मुड़े और जानेअनजाने अपनी अधकचरी बौद्धिकता और अज्ञान के बूते इस विधा का अहित करते चले गए। इन बहुत से लोगों में वे भी थे जो खालिस पाठक थे और लेखक बनना चाहते थे। जो कुछ बनना चाहते हैं उन्हें कोई नहीं रोक सकता। वे बन गए। वे बिना पढ़े लेखक बन गए। उन्होंने बस उसी तरह की लघुकथाएं पढ़ी थीं और वे उसी तरह के लघुकथा लेखक बन गए। यह विराट स्तर पर धर्म परिवर्तन से भी अधिक संगीन मामला था जिसने साहित्य को बहुत बड़े पैमाने पर चोट पहुंचाई लेकिन इसकी कोई चर्चा नहीं हुई। इस पुस्तक में लघु कथा के सौन्दर्यशास्त्र पर चर्चा की गई है और इस विधा की महत्ता को स्थापित करने का प्रयास ही प्रधान है।

    180.00
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    Kitabon Mein Stree

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    Officia quidem necessitatibus qui. Sit aut et laborum ut a eum. Omnis laboriosam minima alias saepe numquam.

    120.00
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    Renu Prasang

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    Id non eveniet aut harum quisquam a illo. Dolores illum dolor eligendi voluptatem et.

    208.00
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    Bacha Rahe Sparsh

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    ‘पुस्तकनामा’ से प्रकाशित यह संचयन कई मायनों में विशिष्ट है। इसमें बहुत वरिष्ठ से लेकर युवा तक 25 प्रखर स्त्री  कवियों ने अपनी श्रद्धांजलियाँ लिखी हैं। ये संस्मरण कुछ वहाँ से नहीं लिखे गए हैं जहाँ, दिनों-महीनों का समय लेकर लेखक तमाम काट-छाँट कर अपने आपको पॉलिटिकली करेक्ट रखते हुए, कलात्मकता की रेह से माँज कर एक संस्मरण लिखता है। ये एक प्रिय कवि के न रहने के अकस्मात आघात के विक्षोभ से उठी तरंगें हैं जिन्होंने सपूर्ण हिंदी समाज को हिला दिया था। ये शोक व स्मृति के ऐसे आवेगपूर्ण अनछुए उद्‌गार हैं कि बेहद महत्वपूर्ण पहला संस्मरण मंगलेश जी के अवसान के छठें ही दिन हाथ में आ गया था। और यही तात्कालिकता इसका सौंदर्य है।

    192.00