Description
प्रस्तुत पुस्तक गद्य कविता की अंत:प्रकृति और उसके आयामों को स्थिर करने का एक जमीनी मंथन है। ‘चिंतन की कसौटी पर गद्य कविता’ लेख सामयिक विश्व कवियों और हिन्दी के मानक कवियों की पृष्ठभूमि में गद्य कविता का व्याकरण स्थिर करने की मीमांसा है,जो कि आलोचक की निजी अनुभूतियों का सुचिंतित प्रस्ताव भी कहा जा सकता है। दो मत नहीं कि गद्यवृत्ति की बेहिसाब अराजकता के कारण हिंदी कविता अपूर्व संकट के मुहाने पर आ खड़ी हुई है। यह पुस्तक उस जरूरी उमीद की तलाश है कि क्या सृजन के श्रेष्ठतर मानकों से समझौता किए बगैर कविता की चिर-परिचित गरिमा, शिखरत्व और लोकप्रियता को इस गद्य शैली में लौटाया जा सकता है?
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