सर पर बस्ता, काँछ में दबाकर बैठने के लिए टाट का टुकड़ा ले जाते गाँव के जर्जर कच्चे पक्के स्कूल से आठवीं, एक रिश्तेदार के घर में रहकर दिल्ली से हायर सेकंडरी, सहारनपुर से ग्रेजुएशन, रोहतक से डॉक्टरी, अमेरिका से हिप्नोथेरेपी- ये तो हुई शिक्षा। बचपन से ही गिल्ली डंडे, कँचे, पतंगबाजी, ताश वगैरा के शौक से दूर अकेले में पढ़ने-लिखने चिंतन मनन ने मित्रों और रिश्तेदारों को नियमित लिखे जाने वाले पत्रों के जरिए लेखन जैसी अभिव्यक्ति को जन्म दिया।
ख़ुद को यदि जन्मजात घुमक्कड़ कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। हमेशा इधर-उधर घूमने और खुद को री-इनवेंट करने की सनक ने कभी ज्योतिष तो कभी वास्तु, कभी मेडिटेशन तो कभी अमेरिका जाकर हिप्नोथैरेपी सीखने की जो जिद पैदा की वो आज भी बरकरार है। कोरोना काल से फ़ेसबुकिया भी हो गया हूँ और कुछ-न-कुछ अनाप शनाप लिख कर पोस्ट करता ही रहता हूँ इससे बेपरवाह कि कितने लोग पढ़ते हैं या लाइक और कमेंट्स करते हैं। लिखा रक्खा है बहुत सारा पर सिवाय चार पाँच कहानियों के छपने के लिए कुछ भेजा नहीं। पर जो भेजा वो देर सबेर छप ही गया।
पहली पुस्तक “फिर चल दिये” के बाद प्रस्तुत “मुल्क दर मुल्क” यात्रा संस्मरण के रूप में दूसरी किताब है ।